रात के ग्यारह बज गए। काली अँधेरी रात तारोंकी चादर ओढ़े धरतीपर छाँ गयी थी। ठंडी हवा के झोंकेसंग आती प्रवेशद्वार पर बिछाये मधुमालतीके फूलोंकी सुगंध मन को महका रही थी। जैसे वोह आहट दे रही हो कि 'रुपाली,अब बहुत रात हो चुकी हैं। सो जाओ। " अब घर में सब लोग सो चुके थे। बेटेके सो जानेका यकीन होतेही मैं चुपचाप उस कमरे की ओर बढ़ी। दो दिनसे भलेही मैं घर के कामोंमें लगी पड़ी हो पर ध्यान सिर्फ इस कमरे की ओर था। एक ऐसा कमरा... जहाँ अक्सर मेरे सिवा किसी औरका जाना-आना होताही नहीं था। पर मुझे इस कमरेसे एक खास लगाव था... हमेशासेही।
कमरेकी नजदीक पहुँचतेही मैंने धीरेसे दरवाजा खोला। कमरेमें चारों तरफ घनघोर अँधेरा फैला हुआ था। पर खिडकीके कोनेसे आती रोशनीके एक किरनके लकेर में मैंने उसको देख लिया। परसो मेरे साथ ही वोह घर आया था | और जबसे आया तबसे कमरेमें बंद करके रखा गया था। पर उसने एक उफ्फ तक नहीं की थी। मैं उसको देखते हुए ही आगे बढ़ी और लाइट्स शुरू कर दी। पल में अँधेरा रोशनीमें समाँ गया और कमरेकी चारों दीवारें रोशनीसे चमक उठी। कमरा हमेशा की तरह थोड़ी बिखरी स्थिति में ही था। पर मैंने बिना किसी और चीज़ की तरफ ध्यान दिए सीधे जाकर उसके सामने खड़ी हो गयी। वोह मेरी तरफ ही देख रहा था। मैं भी चारों ओरसे उसको निहारती रही। ... जाने कितनी बार। वोह थोड़ा सहमा हुवासा था। थोड़ा डर भी नज़र आ रहा था उसके चेहरेपर, न जाने अब ये क्या करनेवाली होगी। आखिर आज उसका भविष्य मेरेही हाथोमें लिखा था। डर तो मुझे भी लग रहा था। पर उससे कहीं ज्यादा उत्सुकता थी। कुछ लगावसा हो गया था उसके साथ।मेरा एक अनुरागही था जिसके कारण वोह मेरे साथ था। आज मैं उसपर अपने मन के सारे रंग लुटा देना चाहती थी। मैं न कोई बड़ी चित्रकार थी नाही मूर्तिकार लेकिन आज मैं उसको एक नया रूप देनेवाली थी। मैं और आगे बढ़ी। मैंने अपना हाथ उसके चेहरेपर रखकर संवारना चाहा , तब एहसास हुआ की कितनी कठिनाईयोंका सामना करके वोह यहाँ मेरे पास पहुंचा था। आज मुझे सिर्फ मुझे उसके साथ सही न्याय करना था। वोह आशासे सिर्फ मुझे देखे जा रहा था। उसकी चेहरेपर और कोई भाव नहीं था । वोह पत्थर के मुरत जैसे बिना पलक झपके सिर्फ देख रहा था। यह देखते न जाने क्यू ,मेरे चेहरेपर एक पलके लिए मुस्कान आयी। मैंने आगे चलते कमरे की खिड़की खोल दी। आसमान में पूनम का चाँद खिला हुआ था। बदलोंमें से वोह भी हमें निहार रहा था...आज वह रात , वोह चाँद सारे गवाह बनने वाले थे एक खुबसुरत लम्हेके ।
कमरे के एक कोनेवाली अलमारीसे कुछ पुरानी किताबें हाथ लगी। जमीं धूल साफ करते मैं उसके पास वापस आयी। कितनी देर तक पन्ने पलटती रही। उसकी तरफ नज़र जाती तो और कुछ सोचने लगती। पर उसको किसी चीजका फरक नहीं था। वोह सिर्फ मेरी हलचल देखे जा रहा था। न कुछ बातें ना कोई हरकत। बड़ी देर बाद कुछ सोचकर मैंने पहला निशान उसके चेहरेपर बनाना चाहा। पर कुछ गलत हुआ। उसका गिरा चेहरा सब बयान कर रहा था। पर झटसे मैंने संभाल लिया उसको भी... और अपने आपको भी। सारे बनाये निशान मिटा दिए। वह फिर खिल उठा नयी तमन्ना के साथ। मैनेभी कुछ सोचा और बड़ी आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने लगी। लाल, हरा ,पीला ऐसे अनेक रंग अलग अलग घोल दिए गए। और फिर शुरू हो गयी एक नयी अनोखी होली। एक के पीछे एक अलग तरहोके रंग मैं उसपर बरसाने लगी। वोह भी हर रंग के साथ अपना रूप बदलता गया। मेरी हर क्रियापर उसकी प्रतिक्रिया आती रही और फिर खेल और गहरा होता गया। मेरी हर स्पर्शसे वोह चहक उठता। उसकी हर खुशीको देखकर यहाँ मैं भी फूली न समाँती। एक अनोखा खेल चल था उस बंद कमरेमें। जिस समय पूरी धरती गहरी नींद के सायोंमें सपनोंमें लिपटी सो रही थी...पर यहाँ मैं, उस वक्त किसी रातरानी की तरह मगन हो गयी थी अपने बुने हुए सपनोंको हकिकतमें उतारने के लिए। बिना कुछ कहे मेरी कल्पनायें , मेरी ख़ुशी , मेरे सपने ,मेरा मन, मेरी भावनायें सामने खड़े चेहरेपर मैं चित्रित करे जा रही थी। नये रंग ,नयी छटाएँ, नए आकार ... सबकुछ नया था बिलकुल पहली बार... हम दोनोंके भी लिए। मैं नशेमें अपना हर रंग उसपर न्योछावर करे जाती और वोह उस हर रंगको झेलते हुए पलपल मेरा साथ देता इन रंगोंकी दुनिया में खुदको समाये लेता गया। पल....घंटा...प्रहर...समय बीतते चले जा रहा था। मैं सबकुछ भूलकर कहीं खो गयी थी।
पर कहिना कही रुकना पड़ता है ना? किसी सूंदर अविष्कार के लिए ठीक समय, ठीक जगह रुकना भी ज़रूरी होता है। इन सब सोच में मैं डूबी थी। तभी अचानक दूरकी मस्जिदसे अजानके स्वर कानोंपर पड़े वैसे मैं तुरंत उठ गयी। खिडकीकी ओर चलती गयी। बाहर नज़ारा पूरी तरह से बदल चूका था। रात का अँधेरा अभी सुरजकी रौशनी की चपेटमें आकर गायब हो गया था। सामनेवाली पहाडीके बीचमें से निकलते सूरज की किरने एक नयी सुबह का इशारा दे रही थी। आँगन में गिरे पारिजातकी खुशबूसे सारा समाँ महक उठा था। पंछी चहकते हुए आकाशमें उड़ान ले रहे थे। और आकाश... वह तो अब रंग चूका था। मानो रात के काले पन्नेपर किसी महान चित्रकारने अपनी कलाकारीसे सारे रंग भर दिए हो और ये सृष्टीका और एक नया अविष्कार सामने आया हो। लेकिन यह अविष्कार मैंने पहलेभी कहीं देखा था। कहाँ ?सोचते सोचते कमरे में वापस आयी। आकर फिरसे उसके सामने खड़ी हुयी तब एहसास हुआ ,वोह अविष्कार तो यहाँ मेरे सामनेही हैं जो कल रातभर मेरा साथ देता रहा... ये वोही कॅनव्हास... मेरी रंगोंकी बौछार से सुंदरता की सीमा पार कर गया हो।
आज... इस समय भी वोह बड़ी शानसे सामने खड़ा है.... एक मौन संवाद करते हुए। उस बंद कमरेसे निकलकर यहाँ कला दीर्घा (आर्ट गैलेरी )में प्रवेश कर वह खुदको काफी खुशनसीब समझ रहा है। ख़ुशी से पागल हो गया हो। और क्यों न हो ? आज वोह सिर्फ सफ़ेद, मौन कॅनव्हास नहीं है तो एक कहानी बयान करता चित्र बन चूका हैं।
पल....मिनिट...घंटोंतक ... वोह मुझे और मैं उसको निहारती रही। पर आज उस नज़र में कृतज्ञता , संतुष्टि, पूर्ति छुपी हुयी थी जो मुझे नि:सन्देह नज़र आ रही थी और शायद उसको भी।
- रुपाली ठोम्बरे
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